छतीसगढ़ी साहित्य परम्परा में एक ऐसा उज्ज्वल व्यक्तित्व हुआ जिसकी लेखनी की आभा ने जनमानस के अंतस को सहज ही आकर्षित कर लिया। साहित्य की नाट्य लेखन विधा में उन्हें महारथ हासिल थी। व्यवस्था पर कटाक्ष, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार से लेकर मानवीय जीवन का कोमल पक्ष कुछ भी उनकी लेखनी से अछूता नहीं रहा।
छतीसगढ़ी नाटक में उच्चतम स्थान रखने वाले ये व्यक्ति है टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा। सत्य ,ईमानदारी, और सादगी जैसे मूल्यों को आत्मसात कर, उन्होंने अपना पूरा जीवन लेखन को समर्पित किया। वे उच्च कोटि के संपादक, नाटककार और रचनाकार थे। उन्होंने आजीवन नाटक, कहानी, कविता और लेख लिखा। वे सन् 1964 में दैनिक सांध्य अग्रदूत से जुड़े और जीवनपर्यन्त ( 7 अक्टूबर 2004 तक) उस अखबार के लिए संपादकीय लिखा।
नौंवी कक्षा में की थी पहली रचना
साल 1927 में फरवरी माह की पहली तारीख को जन्मे टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के पिता श्यामलाल टिकरिहा शिक्षक थे। चाचा सुकलाल टिकरिहा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे बताया करते थे कि नौंवी कक्षा में उन्होंने पहली बार लिखना शुरू किया और फिर लेखन से ऐसा अनुराग हुआ जो अंतिम सांस तक बना रहा। वास्तव में वे पुरस्कारों की होड़ में कभी नहीं रहे। जब वे दैनिक अग्रदूत में कार्यरत थे, उस दौरान बड़े-बड़े अखबारों के प्रस्ताव उनके सामने आए। हिंदी,अंग्रेजी,और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार रखने वाले और अद्भुत लेखकीय कौशल के धनी टिकरिहा के सामने मुम्बई, दिल्ली, जैसे महानगरों के दरवाजे हमेशा खुले रहे। हर बार उन्होंने विनम्रता से इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। वे आजीवन सांध्य खबर दैनिक अग्रदूत में अपनी सेवाएं देते रहे।
गांधी जी के विचारों का गहरा प्रभाव।
परिवेश और शैशवास्था में मिले संस्कार का ऐसा सकारात्मक प्रभाव था कि बचपन से ही उन्हें लगने लगा कि व्यक्ति किसी एक घर या समाज का न होकर सम्पूर्ण मानव समाज का होता है। मैट्रिक पास कर उन्होंने वर्धा कॉलेज से बी.कॉम की डिग्री ली। वर्धा में अध्ययन के दौरान गांधी जी के विचारों का , उनके साहचर्य का उन पर ऐसा असर हुआ कि आजीवन उन्होंने मोटी खादी का वस्त्र ही उपयोग किया और सत्य, ईमानदारी, जैसे मूल्यों को अपनाए रहे । सरलता, सहजता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत थी।
मूल्यों से समझौता नहीं, खाद्य अधिकारी जैसा पद त्याग दिया
अगर आज कोई कहे कि अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करने के लिए एक व्यक्ति ने अधिकारी पद छोड़ दिया था,तो शायद लोग विश्वास न करें। टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा ने वाकई ऐसा किया था। कॉलेज की पढ़ाई के बाद वे खाद्य अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गए थे। उन्हें यह नौकरी रास नहीं आई और कुछ ही दिनों के भीतर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। सिद्धांतों के लिए टिकेन्द्र टिकरिहा जैसा व्यक्ति रोजगार को भी ताक पर रख देता है। क्या आज के युवा ऐसा करने की कल्पना भी कर सकते हैं? आज युवाओं के सामने ऐसे आदर्शों को रखने की जरूरत है।
टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा का रचना संसार
टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा को नाटककार के रूप में विशेष तौर पर स्मरण किया जाता है। “गंवइहा” उनके द्वारा रचित पहला नाटक था। पहली बार इसका मंचन डॉ. खूबचंद बघेल के गांव पथरी में हुआ। जनसमूह ने इस नाटक की अपार सराहना की। भिलाई इस्पात संयंत्र और वहां के गांवों के किसानों के विस्थापन पर लिखे गए “गंवइहा” नाटक को छत्तीसगढ़ी साहित्य की अमर कृतियों में शामिल किया गया। इस नाटक का मंचन रंग मंदिर रायपुर समेत राज्य के कई स्थानों पर हुआ। टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा ने सौ से भी अधिक नाटक लिखे जिनमें, गंवइहा, साहूकार ले छुटकारा, पितर पिंडा, सौत के डर, नवा बिहान,चूना उल्लेखनीय है। इनके तेरह नाटकों का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले एकमात्र जातीय पत्रिका कूर्मि जागरण में उनके विचारोत्तेजक लेख छपते रहे। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के कविता, नाटक,कहानी और निबंध छपते रहते थे। लेखन का यह कार्य उन्होंने जीवनपर्यंत किया।
राज्य को टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के साहित्य को संरक्षित करने की आवश्यकता
टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा जैसे नाटककार संत कोटि के होते हैं। वे पुरस्कार,सम्मान या किसी पद के लिए नहीं लिखते बल्कि उनका लेखन सम्पूर्ण समाज को दिशा देता है और समाज में व्याप्त कुरीतियों को सामने रखता है। सवाल यह है कि राज्य बनने के इतने वर्षों बाद भी टिकेन्द्र टिकरिहा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं को संरक्षित करने, उन्हें जनसामान्य के सामने रखने की दिशा में कदम क्यों नहीं उठाया जा सका? क्यों सरकारें छत्तीसगढ़ के एक महान नाटककार को भूल गई है? टिकेन्द्र टिकरिहा का पूरा जीवन हांडी पारा स्थित उनके पैतृक निवास में गुजरा। वह घर सिर्फ घर नहीं बल्कि सैकड़ों डॉक्टरों, इंजीनियरों के लिए आश्रय स्थल रहा। छत्तीसगढ़ के स्वप्नदृष्टा डॉ. खूबचंद बघेल, आध्यात्मिक जगत सूर्य स्वामी आत्मानंद, रंगकर्मी हबीब तनवीर, लक्ष्मण मस्तुरिया इत्यादि सभी लोग टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के उस घर में अक्सर आते और फिर देर तक चर्चा चलती। टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा की साहित्य साधना अविराम चल सकी तो इसका बड़ा कारण यह भी था कि घर की सारी जिम्मेदारी उनकी पत्नी पूर्णिमा टिकरिहा ने उठा ली थी। श्रीमती टिकरिहा आज भी उसी घर में रह रही हैं। अपने नाती-नातिनों को वे टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा के साहित्य में पगी स्मृतियां सुनाती है। हांडीपारा के उस ऐतिहासिक घर की गाथा सुनाती हैं। हांडीपारा स्थित टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा का यह आवास पूरे साल लोगों से भरा रहता। बहुतों ने वहां से पढ़कर अपना जीवन संवार लिया। यहां तक कि वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक बचपन से लेकर बड़े होते तक यहां खूब आते रहे। आज यह परतें इस लिए खोली जा रही हैं कि ऐसे मूर्धन्य नाटककार की रचनाओं का संरक्षण छत्तीसगढ़ के साहित्यप्रेमियों और जिम्मेदार सरकारी निकायों को गम्भीरता से करना होगा क्योंकि तब ही छतीसगढ़ी साहित्य की समृद्धि बनी रहेगी।
सरलता, सहजता, त्याग,निष्ठा, ईमानदारी जैसे मूल्यों को आचरण में ढालने वाले, लेखन से समाज के गूढ़ सत्य को उद्घाटित करने वाले नाटककार टिकेंद्र नाथ टिकरिहा साहित्य के आकाश में सदैव सितारा बनकर चमकते रहेंगे। आने वाली नई पीढ़ियां उनके रचना संसार और व्यक्तिव के आलोक से प्रेरणा पाती रहेंगी।

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